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वाइरस
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तनों पर, चमकीले पीले धब्बों के साथ विशिष्ट स्वरूप विकसित हो जाते हैं और निचली या मध्य पत्तियों पर छल्ले या रेखाएं उभर आती हैं। एक कम सामान्य लक्षण है नई ऊपरी पत्तियों के गुच्छों पर पीले, V-आकार के हरिमाहीन स्वरूप, जिसके परिणामस्वरूप ये विशिष्ट रूप से चित्तीदार नज़र आते हैं। मोप-टॉप वायरस के कारण गाँठों के बीच का स्थान बहुत छोटा हो जाता है, और साथ ही पत्तियां बहुत पास-पास निकलती हैं या गुच्छेदार हो जाती हैं। कुछ छोटी पत्तियों में लहरदार या मुड़े हुए किनारे दिखते हैं, जिसके कारण पौधा छोटा रह जाता है या गुच्छेनुमा दिखता है। आलू की सतह पर 1-5 सेंटीमीटर के एक ही केंद्र वाले छल्ले दिखते हैं। कंद के गूदे पर भूरी परिगलित धारियाँ, अर्ध-गोलाकार और छल्ले जैसे स्वरूप भी विकसित हो सकते हैं।
रोपण की सॉयल बेटिंग विधि के उपयोग से वायरस को अलग करके इसकी उपस्थिति की निगरानी करें और संकेतक पौधों की मदद से इसकी जल्द पहचान करें। आलू की ऐसी किस्मों का रोपण करें जिनमें कंद परिगलन के लक्षण नहीं होते।
हमेशा निवारक उपायों और उपलब्ध जैविक उपचारों के मिलेजुले दृष्टिकोण पर विचार करें। रोग का कोई भी प्रभावी और पर्यावरण के लिए सुरक्षित रासायनिक नियंत्रण उपाय नहीं है। इस रोग को फैलने से रोकने के लिए सबसे अच्छा तरीका है इस विषाणु से मुक्त मिट्टी में विषाणु-मुक्त कंद लगाना।
नुकसान का कारण पोटैटो मॉप-टॉप वायरस (पी.एम.टी.वी.) है, जो मिट्टी में अपने कवक रोगवाहक के निष्क्रिय, सुषुप्त बीजाणुओं के भीतर जीवित रहता है। पाउडरी स्कैब फंगस (स्पॉन्गोस्पोरा सब्टरेनिया) मिट्टी-जनित जीव है और इस वायरस का एकमात्र रोगवाहक है। मिट्टी के लाने ले-जाने से भी वायरस फैल सकता है और भंडारण तथा ग्रेडिंग के दौरान संक्रमित कंदों से उड़ने वाली धूल से भी कंद संक्रमित हो सकते हैं। वायरस और इसका रोगवाहक ठण्डे और नम मौसम में पनपते हैं। इस रोग के कारण कंद उत्पादन और गुणवत्ता की कमी के कारण संवेदनशील किस्मों की पैदावार में भारी नुकसान हो सकता है।